Saturday, October 29, 2011

'રાગ દરબારી'ના સર્જકની ચિરવિદાય

                                                                        
  
શ્રીલાલ શુક્લ
(૩૧-૧૨-૧૯૨૫ થી ૨૮-૧૦-૨૦૧૧)

આગલી પોસ્ટમાં જણાવ્યા મુજબ આ વખતે મૂળ તો ડેલહાઉસી અને તેની આસપાસના વિસ્તારોની તસવીરી ઝલક આપવાનો ઉપક્રમ હતો, પણ એ કાર્યક્રમ પાછો ઠેલવો પડે એવા સંજોગો ઉભા થયા.
હજી તો માંડ મહિના-સવા મહિના પહેલાં પ્રિય લેખક અને રાગ દરબારીના સર્જક શ્રીલાલ શુક્લને જ્ઞાનપીઠ સન્માન મળ્યા નિમિત્તે પોસ્ટ લખીને તેમની સાથેની મારી અને ઉર્વીશની મુલાકાતની વાત જણાવીને આનંદ વ્યક્ત કર્યો હતો. જીવનનું યાદગાર બની ગયેલું એ સંભારણું તાજું કર્યું હતું. 
રાગ દરબારીનું રંગનાથ કી વાપસી ના નામે થયેલું મંચન
ત્યારે અંદાજ સુદ્ધાં નહોતો કે આટલી ઝડપથી તેમને શ્રદ્ધાંજલિ આપતી પોસ્ટ લખવાની થશે. ૮૬ વર્ષની ઉંમરે તેમના થયેલા અવસાનના સમાચાર જાણીને થોડો વિષાદ એ રીતે પણ થાય કે- શું જ્ઞાનપીઠ સન્માન કે શું ફાળકે એવોર્ડ- સર્જકને સર્વોચ્ચ સન્માન ત્યારે જ મળે જ્યારે એ મરણોન્મુખ હોય? જ્યારે એ આ બધાથી પર થઈ ગયો હોય?
ખેર! અમારી એ મુલાકાતની વિગતે વાતો ઉર્વીશે એના બ્લોગ પર મૂકી છે. (એ વાંચવા માટે અહીં ક્લીક કરો: http://urvishkothari-gujarati.blogspot.com/2011_10_01_archive.html ) 
 શુક્લજીની અન્ય મનગમતી કૃતિઓ વિષેની વાત પણ ફરી ક્યારેક કરીશું, પણ આજે શ્રીલાલ શુક્લને શ્રદ્ધાંજલિરૂપે રાગ દરબારી જેવી અમર બની ગયેલી અને અંગત રીતે અત્યંત માનીતી એવી કૃતિમાંથી અહીં મૂકવા જોગ અમુક અંશની પસંદગી કરવામાંય મીઠી મૂંઝવણ તો છે જ કે કયા લખાણની પસંદગી કરવી? છતાંય રાગ દરબારીના વ્યંગનો અંદાજ આવી શકે એવા કેટલાક અંશ, જે વાંચતાં યાદ એટલું જ રાખવાનું કે શુક્લજીએ આ દર્શન છેક ૧૯૬૮માં કરેલું હતું.
(રાગ દરબારી શિવપાલગંજ નામના ગામડાની પશ્ચાદભૂમાં આલેખાયેલી છે. પૂર્વાપર સંદર્ભ વિના પણ માણી શકાય એ રીતે કેટલાક અંશ અહીં મૂક્યા છે.)
  •   वहाँ पर एक चबूतरा बनवा दिया गया था, जिसे गाँधी-चबूतरा कहते थे। गाँधी, जैसा कि कुछ लोगों को आज भी याद होगा, भारतवर्षमें ही पैदा हुए थे और उनके अस्थि-कलश के साथ ही उनके सिद्धान्तों को संगम में बहा देने के बाद यह तय किया गया था कि गाँधी की याद में अब सिर्फ पक्की इमारतें बनायी जायेगी और उसी हल्ले में शिवपालगंज में यह चबूतरा बन गया था। चबूतरा जाडों में धूप खाने के लिए बडा उपयोगी था और ज्यादातर उस पर कुत्ते धूप खाया करते थे; और चूँकि उनके लिए कोई बाथरूम नहीं बनवाया जाता है इसलिए वे धूप खाते-खाते उसके कोने पर पेशाब भी कर देते थे और उनकी देखादेखी कभी-कभी आदमी भी चबूतरे की आड में वही काम करने लगते थे। 
  • उन दिनों गाँव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि पहले कुछ और था। वास्तव में पिछले कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गाँववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वकता शुरू से ही यह मानकर चलता था कि गाँववाले इस बात का विरोध करेंगे। इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूँढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। ईसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है। फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्राय: दोपहर के खाने का वक्त हो जाता और वह तमीजदार लडका, जो बडे संपन्न घराने की औलाद हुआ करता था और उसे जिसको चीको साहब की लडकी ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपडा खींच खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है। कभी कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनके आगे की और पीछे की बात में कोई फर्क नहीं था, क्योंकि घूम फिरकर बात यही रहती कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चाहिये, अधिक अन्न उपजाना चाहिये। प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते।
लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे। मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते। इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाये और उन्हें अच्छी अच्छी तस्वीरें दिखायी जायें। उनके द्वारा उन्हें बताया जाय कि तुम अगर अपने लिए अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिए करो। इसी से जगह जगह पर पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिए अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे। लेक्चरों और तस्वीरों का मिला जुला असर काश्तकारों पर बडे जोर से पडता था और भोले से भोला काश्तकार भी मानने लगता था कि हो न हो, इसके पीछे भी कोइ चाल है
  •  यह सही है कि सत्य’, अस्तित्व आदि शब्दों के आते ही हमारा कथाकार चिल्ला उठता है, सुनो भाइयों, यह किस्सा कहानी रोककर मैं थोडी देर के लिए तुमको फिलासफी पढाता हूँ, ताकि तुम्हें यकीन हो जाय कि वास्तव में मैं एक फिलासफर था, पर बचपन के कुसंग के कारण यह उपन्यास (या कविता) लिख रहा हूँ। इसलिए हे भाइयों, लो, यह सोलह पेजी फिलासफी का लटका, और अगर मेरी किताब पढते पढते तुम्हें भ्रम हो गया हो कि मुझे औरों जैसी फिलासफी नहीं आती, तो उस भ्रम को इस भ्रम से काट दो।
तात्पर्य यह है, क्योंकि फिलासफी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए अपने आपमें एक वैल्यू है, क्योंकि मैं कथाकार हूँ, क्योंकि सत्य’, अस्तित्व आदि की तरह गुटबन्दी जैसे एक महत्वपूर्ण शब्द का जिक्र आ चुका है, इसीलिए सोलह पृष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक दो पृष्ठ के लिए अपनी कहानी रोककर मैं भी पाठकों से कहना चाहूँगा कि सुनो सुनो हे भाइयों, वास्तव में मैं एक फिलासफर था, पर बचपन के कुसंग के कारण...
  •   गाँव के किनारे एक छोटा सा तालाब था जो बिल्कुल अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है था! गन्दा कीचड से भरा पूरा, बदबूदार। बहुत क्षुद्र। घोडे, गधे, कुत्ते, सुअर उसे देखकर आनन्दित होते थे। कीडे मकोडे और भुनगे, मक्खियाँ और मच्छर‌ ‌-परिवार-नियोजन की उलझनों से उन्मुख- वहाँ करोडों की संख्या में पनप रहे थे और हमें सबक दे रहे थे कि अगर हम उन्हीं की तरह रहना सीख लें तो देश की बढती हुई आबादी हमारे लिए समस्या नहीं रह जायेगी। गन्दगी की कमी को पूरा करने के लिए दो दर्जन लडके नियमित रूप से शाम-सवेरे और अनियमित रूप से दिन को किसी भी समय पेट के स्वेच्छाचार से पीडित होकर तालाब के किनारे आते थे और- ठोस, द्रव तथा गैस-तीनों प्रकार के पदार्थ उसे समर्पित करके, हल्के होकर वापस लौट आते थे।
अपने पिछडेपन के बावजूद किसी देश का जैसे कोई न कोई आर्थिक और राजनीतिक महत्त्व अवश्य होता है, वैसे ही इस तालाब का भी, गन्दगी के बावजूद, अपना महत्त्व था। उसका आर्थिक पहलू यह था कि उसमें ढालू किनारों पर दूब अच्छी उगती थी और वह शिवपालगंज के इक्कावालों के घोडों की खाद्यसमस्या दूर करती थी। उसका राजनीतिक पहलू यह था कि वहाँ घास छीलनेवालों के बीच सनीचर ने कैन्वेसिंग की और अपने लिए वोट माँगे।
  •  अदालत के कुछ कहने के पहले ही जोगनाथ के वकील को गुस्सा आ गया। वास्तव में वे एक ऐसे वकील थे जो अपने गुस्से के लिए मशहूर थे और उनके दलाल प्राय: नये मुकदमेबाजों को उनका गुस्सा दिखाने के लिए ही इजलासों में पकड ले जाया करते थे। गुस्सा ही उनकी विद्या, उनकी बुद्धि, उनका कानूनी ज्ञान, उनका अस्त्र -शस्त्र और कवच था। वही उनका साइनबोर्ड, उनका विज्ञापन, ‌‌‌‌‌उनका पितृ-मातृ-सहायक-स्वामि-सखा था। जब वे गुस्सा करते थे तो दूसरे लोग काँपे या नहीं, वे खुद थर-थर काँपने लगते थे; समझदार अदालतें उनके गुस्से से अप्रभावित रहकर चुपचाप काम करती थीं और उसे खाँसने और छींकने की श्रेणी का मामूली व्यवसाय समझकर उस पर कोई राय नहीं देती थीं। अगर किसी अदालत ने उनके गुस्से का बुरा माना तो उस अदालत की निन्दा में वकील साहब बार असोसिएशन में भाषण देते थे और असोसिएशन प्रस्ताव पास करता था।
  • पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई थी, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफसोस को लेकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पडा रहा। इसके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते है कि मुकदमे का फैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पडा ही है।
  •     શાળાની ઓચિંતી મુલાકાતે આવેલા એક નેતા વિદ્યાર્થીઓ સાથે વાતચીત કરે છે, એનો અહેવાલ.)
उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में पिछली शताब्दि की यह एक असाधारण उपलब्धि है कि हम इतनी जल्दी जान गये है कि हमारी शिक्षा-पद्धति खराब है। फिर उन्होंने, लडकों को खेती करनी चाहिए, दूध पीना चाहिए, स्वास्थ्य बनाना चाहिए और भविष्य का नेहरू और गाँधी बनने के लिए तैयार रहना चाहिए-ये सब बातें बतायीं जो लडके उनको भी बता सकते थे। इसके बाद समन्वय,एकता,राष्ट्रभाषा का प्रेम-इस सब पर एक अनिवार्य जुम्ला बोलकर, कॉलिज की समस्याओं पर विचार करने का सालाना वादा करके, सेवा के बाद तत्काल मिलनेवाली मेवा खाकर और चाय पीकर वे फिर सत्तर मील की रफ्तार से आगे बढ गये।
मास्टर और लडके भाइयों और बहनों की नकल उतारते हुए अपने-अपने घर चले गये। शिक्षा-पद्धति में आमूल परिवर्तन के सूझाव पर अमल करने के लिए कॉलिज में माली, चपरासी और मजदूर रह गये।
  •               કો ઓપરેટીવ યુનિયનમાં પોતે કરેલા ગોટાળા વિશે વૈદજી આ રીતે આશ્વાસન લે છે.)
हमारी युनियन में गबन नहीं हुआ था, इस कारण लोग हमें सन्देह की दृष्टि से देखते थे। अब तो हम कह सकते है कि हम सच्चे आदमी है। गबन हुआ है और हमने छिपाया नहीं है। जैसा है, वैसा हमने बता दिया है।  
  •    (ગામના એક નાગરિક રામાધીનને જાસાચિઠ્ઠી મળે છે, જેમાં અમુક સ્થળે પાંચ હજાર રૂપિયા મૂકી જવાનું લખ્યું હોય છે. આ બાબતે એક પોલિસ અને રુપ્પન વચ્ચેનો સંવાદ.)
दारोगाजी मुस्कराकर बोले, यह तो साहब, बडी ज्यादती है। कहाँ तो पहले के डाकू नदी-पहाड लाँघकर घर पर रूपया लेने आते थे, अब वे चाहते है कि कोई उन्हीं के घर जाकर रूपया दे आवे।
रूप्पन बाबू ने कहा, जी हाँ। वह तो देख रहा हूँ। डकैती न हुई, रिश्वत हो गयी।
दारोगाजी ने भी उसी लहजे में कहा, रिश्वत, चोरी, डकैती-अब तो सब एक हो गया है... पूरा साम्यवाद है।

2 comments:

  1. પ્રિય બીરેનભાઈ,હજી એક મહિના અગાઉ જ શ્રીલાલ શુક્લા અને એમની યશસ્વી કૃતિ રાગદરબારી વિષે અહી આ જ જગ્યાએ વાંચેલું.એ લેખ વાંચ્યા પછી દિલ્હી,રાજકમલ પ્રકાશન સાથે રાગ દરબારી મેળવવા માટે વાત કરી હતી.પણ વિધિની કેવી વક્રતા છે કે હજી એ પુસ્તક હાથમાં આવે એ પહેલા જ એના સર્જકના અવસાનના સમાચાર મળ્યા.કાલે ટીવી પર સમાચાર જોઇને પહેલો જ તમને કોલ કરેલો.ઘડી ભર તો હું આંચકો જ ખાઈ ગયેલો.શ્રીલાલ શુક્લા ને મળ્યા વિના જ એમને માટે લાગણી બંધાઈ ગયેલી(બરાબર એવી જ રીતે જેવી રીતે રાગદરબારી વાંચ્યા પહેલા જ દિલમાં એના માટે સ્થાન થઇ ગયું.ને એ માટે હું તમારો ને ઉર્વીશભાઈનો જાહેરમાં આભાર માની લઉં છું.) એ લેખક તરીકે જેટલા મહાન હતા(ને છે.) એટલા જ એ પ્રેમાળ રહ્યા,જેની પ્રતીતિ તમારા લેખોમાં મળી જ છે.એમને સાહિત્યનો જ્ઞાનપીઠ પુરસ્કાર મોડો અપાયો,તમારી એ ટકોર સાવ સાચી છે.પણ એ વિષે મુહમ્મદ અલ્વીસાહેબે બહુ જ ધારદાર કટાક્ષ કરતા કહેલું કે-"સાહિત્ય અકાદમી એ એવી પાગલ છોકરી છે કે જે પોતાના સ્વયંવરમાં હંમેશા બુઢઢાઓને જ વરમાળા પહેરાવે છે." ને આમ પણ આપણા દેશમાં ટયૂબલાઇટનું વિશેષ ચલણ છે.જ્યાં ઝબકારો હંમેશા મોડો જ થાય ને ક્યારેક તો એ પ્રક્રિયામાં વર્ષો વહી જાય.શુક્લા સાહેબ મોડા મોડા પણ સન્માનિત થયા,એ જ આશ્વાશન સાથે એમના એક અદના ચાહકની અશ્રુભીની સલામ.

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  2. priye birenbhai,shree lal shuklaji ne bhav bharee sradhanjali.aapni vat sachi chhe ke inam hamesa moda j male chhe. pan ghani var thay ke bhale modu malyu pan layak vyakti ne malyu to kharu! ghanee var to layak vyaktee ne maltu pan nathi jem ke film ma PRAN SAHSAHB ne haju pan dada shaheb falke award hu manu chhu,tya sudhi malel nathi.aa mate aapne kaik zubensh jevu n saru karee sakie?tame, shree urvishbhai shree rajnikumar pandya saheb jeva jankar loko aa vise veecharva vinnati.ane pran saheb nu uchit sanman thay tevi prathna.

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