Sunday, March 5, 2017

આનંદ, અભિનંદન, અભિવાદન!



(અમદાવાદસ્થિત મિત્ર કેતન રૂપેરાની ઓળખ ઉદ્યમી
, મૂલ્યનિષ્ઠ પત્રકાર, લેખક અને સંપાદક તરીકે છે. આ બ્લૉગ પર તેઓ અનિયમિતપણે કંઈક ને કંઈક લખતા રહ્યા છે. દિલ્હીના કાકાસાહેબ કાલેલકર પત્રકારિતા સન્માન, 2016 માટે તેમની પસંદગી થઈ તેનો આનંદ તેમને પોતાને થાય એટલો જ અમારા જેવા તેમના અનેક મિત્રોને પણ થયો હતો. 31 ડિસેમ્બર2016ના રોજ નવી દિલ્હીમાં યોજાયેલા સમારંભમાં તેમને આ સન્માન અર્પણ કરવામાં આવ્યું. 
હિંદુસ્તાની ભાષા દ્વારા રાષ્ટ્રીય એકતા સ્થાપવાના ગાંધીજીના વિચારના પ્રચાર-પ્રસાર માટે કાકાસાહેબ કાલેલકરે 1955માં દિલ્લીમાં 'ગાંધી હિન્દુસ્તાની સાહિત્ય સભા'ની સ્થાપના કરેલી. એ પછી જીવનના અંત (1981) સુધી તેઓ ત્યાં જ રહ્યા. ગાંધી નિધિની બાજુમાં આ મકાન હોઈ કાકાસાહેબે તેનું નામ સન્નિધિ પાડ્યું. હાલ આ જગ્યાએ ગાંધી હિન્દુસ્તાની સાહિત્ય સભા દ્વારા સુંદર રીતે સચવાયેલું કાકાસાહેબનું મ્યુઝિયમ છે. આ ઉપરાંત સંસ્થા દ્વારા શિક્ષણસાહિત્ય અને સંસ્કારઘડતરની અન્ય પ્રવૃત્તિઓ પણ થઈ રહી છે. 

ગાંધીવિચારથી પ્રભાવિત જાણીતા હિન્દી સાહિત્યકાર વિષ્ણુ પ્રભાકર કાકાસાહેબ સાથે ઘનિષ્ટ પરિચયમાં હતા. વિષ્ણુ પ્રભાકરના અવસાન(2009) પછી કાકાસાહેબ સ્થાપિત 'ગાંધી હિન્દુસ્તાની સાહિત્ય સભાઅને વિષ્ણુ પ્રભાકરની સ્મૃતિમાં સ્થપાયેલા 'વિષ્ણુ પ્રભાકર પ્રતિષ્ઠાનદ્વારા સમયાંતરે વિવિધ વિષય પર સંગોષ્ઠિ યોજાતી. ઉત્તરોત્તર તે વિસ્તરતા બંને સંસ્થાઓએ સાથે મળીને પાંચ ક્ષેત્ર-પત્રકારત્વશિક્ષણસાહિત્યસંગીત અને ચિત્ર-માં નોંધપાત્ર કામ કરનારને દર વર્ષે સન્માનિત કરવાનું નક્કી થયું. સન્માનનું આ ત્રીજું વર્ષ હતું. આ અગાઉ વર્ષ 2014 અને 2015માં સન્માન આપવામાં આવ્યું છે. 
આ સન્માનનો સ્વીકાર કરતાં કેતને જે વક્તવ્ય આપ્યું તે કેટલીક તસવીરો સહિત અહીં પ્રસ્તુત છે. આ ઉપરાંત વક્તવ્યના અંતે પ્રો. સંજય ભાવેએ કેતનનો અંતરંગ પરિચય આપતા લેખમાંથી કેટલાક અંશ મૂક્યા છે.
આ વક્તવ્ય એક રીતે કેતનના વ્યક્તિત્ત્વનીતેના કાર્યની અને કાર્યશૈલીની ઓળખને ઉજાગર કરે છે.)  

સન્માન કાર્યક્રમની વિગત દર્શાવતું નિમંત્રણ 

काकासाहेब कालेलकर सम्मान प्रतिभाव वक्तव्य
केतन रूपेरा
सादगी, सहजता और सौंदर्य से भरे आज के सन्निधि संगोष्ठी सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि श्रीमती ममताजी (कवयित्री और लेखिका), विशिष्ट अतिथि डॉ. अमरनाथजी(निर्देशक, दूरदर्शन), समारोह के अध्यक्ष प्रेमपालजी (हिन्दी साहित्यकार), रमेश शर्माजी(गांधीमार्गी समाजसेवक), कुसुमबहेन(मंत्री, गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा), सभी महानुभाव और सब काकाप्रेमी और विष्णु प्रभाकर प्रेमी श्रोतागण...
गांधीजी के बाद जिसकी लिखाई हमेशां से पसंद आई हो और बीसवीं शताब्दी में न केवल देश की अपितु विश्व की दो महान विभूति - मोहनदास करमचंद गाँधी और कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व और साहित्य, दोनों के सुभग संयोजन के साथ अपनी भी एक स्वतन्त्र प्रतिभा प्राप्त हो ऐसे काकासाहेब कालेलकर के साथ अपना नाम जुड़ने से बहुत ही हर्ष और आनंद प्रतीत कर रहा हूँ।
जब ये सम्मान की खबर मुझे मिली और पहली बार उसका अभिनंदन पत्र पढ़ा तब इस शरीर में से एक लंबी हलकी ज़ंज़नाहट से प्रतीत हुई। और इसे योगानुयोग ही कहेंगे की जिस दिन हमने नवजीवन में से काकासाहेब कालेलकर प्रस्तावना विशेषांक की पीडीएफ पाठकों को मेल की उसी दिन ये हर्ष बरसाने वाली मेल भी मुझे मिली। इसके लिए गाँधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा और विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान का बहुत ही शुक्रगुजार हूँ।
गुजरात से आया हूँ तो इस मौके पर काका और गुजरात के बारे में थोड़ा बहुत जानने की सब की जिज्ञासा होगी। तो उसे, मैं अपने खुद के अनुभव से ही बयान करूँ।
गुजरात में आज भी कोई भी पुस्तक मेले में, जहाँ नवजीवन का बुक स्टाल होता है, वहां 'गांधीजी की आत्मकथा' के बाद जिन पुस्तकों की बिक्री सब से ज्यादा होती है वो काका की पुस्तकें हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार-प्राप्त कवि उमाशंकर जोशी, जिसका गुजराती कवि ऐसा परिचय मैं नहीं दूंगा, क्योंकि उन्होंने ही काका की विश्वभारती की संकल्पना को अपने शब्दों में यूँ रखा कि, वो कैसा गुजराती, जो हो केवल गुजराती। ऐसे उमाशंकर जोशी ने अपने 'संस्कृति' सामयिक में काका का चरित्र लिखते हुए एक समय के गुजरात के बारे में लिखा था कि गुजरातनी हवामां एमनी संस्कारमाधुरीनो स्पर्श हतो। गुजरात की हवा में काका की संस्कार माधुरी का स्पर्श था। और आज भी जिनका साहित्य से कोई नाता न हो ऐसी किसी व्यक्ति को तीन या पांच साहित्यकार के नाम पूछे जाएं और वह बता पाएं, (हाँ, आज के गुजरात में इतनी शर्त तो रखनी होगी) तो उसमें अन्य नाम इधर-उधर हो जाएं या न आएं, लेकिन 'काका कालेलकर' नाम जरूर आएगा।
पत्रकारिता के लिहाज से थोड़ी बात करें तो व्यक्तिगत रूप से कई पत्रकार अपने विचार-अभिव्यक्ति बड़ी हिम्मत से रखतें हैं, वृतांत और गंभीर लेख के अलावा व्यंग-कटाक्ष के माध्यम से भी अन्याय, शोषण या गैररीति के विरुद्ध में लिखतें हैं लेकिन आखिर में चित्र - हम अपना कर्म करतें रहें, फल की आशा ना रखें, ऐसा उभर कर आता है। शासन व्यवस्था पर उसकी कोई ज्यादा असर नहीं पाई जाती है। उसमें जो कारण है वो कोई राज्य या सिर्फ हमारे देश के नहीं, शायद पूरे विश्व के कारण है। 
वो कारण है बाजार। जरुरत की बजाय लालसा और उपयोग से ज्यादा व्यय की ओर खींच रहे इस बाजार से हमें तो बचना ही होगा। साथ साथ नई पीढी को भी गांधीजी की नई तालीम की शिक्षा के रास्ते ले आना होगा। काका, कृपलानी जैसे आचार्य ने इसी शिक्षा को आगे बढ़ाते हुए कई रचनात्मक कार्यकर तैयार किये जो गुजरात और देश के गॉवों में निकल पड़े।
मैं बहुत आनंदित हूँ इस बात से कि गांधीजी स्थापित गूजरात विद्यापीठ ने इस पथ पर आगे बढ़ते हुए ग्रामशिल्पी योजना तैयार की है।  तक़रीबन १० सालों से चल रही है।  जिसमें विद्यापीठ के स्नातक, शहर और बाजार का शिकार न बनते हुए दूरदराज के कोई एक गांव में जाकर बसतें हैं, उस गांव के लोगों के साथ मिलजुलकर रहतें हैं और गांव के लोगों की जरूरत एवं गांधीविचार के आधार पर ग्रामसुधार का काम करतें हैं।   विद्यापीठ कई सालों से अपने स्नातकों को ग्रामसेवा के लिए महादेव देसाई पुरस्कार देती है। पहली जनवरी महादेव देसाई की जन्मतिथि है। इस अवसर पर ये पुरस्कार अभी तक के सब से नौजवान और मेरी ही आसपास की उम्र के स्नातक जलदीप ठाकर को मिल रहा है। 
तो बात थी हमारी शासन व्यवस्था यानि सरकार और बाजार की। वो अपना काम करेंगे ही लेकिन, और शायद उसी के कारण ही हमें यानि गाँधी के स्वराज विचार से जुडी हुई संस्थाओं को अपने काम 'तारी हांक सुनी कोई ना आवे' तो भी करतें ही रहना हैं।
क्योंकि यदि हम कुछ करने का ठान लेतें हैं, कहीं न कहीं से कोई ना कोई उस काम को आगे बढ़ाने में अपना जो कुछ हो सके वो प्रदान करता है, ऐसा हम सबका अनुभव होगा। ऐसे ही मेरे इस पुरस्कार से सम्मानित होने के पीछे जो लोग है उनको याद करूँगा।
पहले मेरे माता-पिता, बी.एससी. करने के बाद एम. एससी. के बदले मुझे एम.जे.एम.सी., यानि मास्टर ओफ सायन्स के बदले मास्टर ओफ जर्नलिझम और मास कम्युनिकेशन में जाने के लिए हाँ कही। हाँ, थोड़ी मसक्कत करनी पड़ी और वहीँ से पत्रकारिता शुरू हो गई। लेकिन उसके कारण मात्र शिक्षक बनने के बजाय, पत्रकार और शिक्षक दोनों बन पाया। उनके लिए आभार के कोई शब्द नहीं है, सिर्फ वंदन है। 
एक अच्छी बात यह भी बनी कि जिस तरह ऐतिहासिक गूजरात विद्यापीठ में पत्रकारिता का अभ्यास किया, उसी तरह स्नातक का अभ्यास ऐतिहासिक गुजरात कॉलेज से हुआ। जहाँ हिन्द छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रध्वज लहेराने पर इस कॉलेज के छात्र वीर विनोद किनारीवाला ने अपनी जान न्योंछावर की थी।  उसी कॉलेज में निबंध और वक्तृत्व के अध्यक्ष नीलाबहन जोशी (वैसे संत ज्ञानेश्वर और साने गुरूजी पर उनका गहरा अभ्यास है और उन पर लिखा भी है, लेकिन आज वो 'लगे रहो मुन्नाभाई' के स्क्रिप्ट राइटर अभिजात जोशी की मां से भी पहचानी जाती है) उनसे मेरी मुलाकातें न बनती रहती तो पत्रकारिता में आने का विचार भी शायद मुझे न आता।  नीलाबहन को भी मेरा वंदन।
हम सब जानते हैं कि गांधीजी के जो पत्र थे वो समाचारपत्र नहीं, विचारपत्र थे।  गुजरात में भी थोड़े, लेकिन बड़े मजबूत विचारपत्र हैं। पत्रकारिता के अभ्यास के दौरान 'निरीक्षक', 'नयामार्ग', 'भूमिपुत्र', 'दलित अधिकार'... जैसे विचारपत्रों एवं 'ग्रामगर्जना' जैसे ग्रामीण अख़बार और उसके तंत्रियों के सत्संग के कारण, मैं अपने विचार यहां रख पाने लायक बना हूँ। उनको आभार कहूंगा तो कहेंगे कि ये तो हमारी पत्रकारिता है।
किसी भी व्यक्ति के ऊँचे उठने में उनके जीवन में शिक्षक की बड़ी भूमिका होती है। स्कुल में तो ऐसे शिक्षक मिले ही लेकिन पत्रकारिता में अश्विनकुमार (जो काका के बड़े अभ्यासी है, कुछ साल पहले उनका यहाँ वक्तव्य भी सन्निधि ने रखा था) और प्रत्यक्ष रूप से शिक्षक न हो कर भी शिक्षक की भूमिका अदा की ऐसे अंग्रेजी के अद्यापक संजय श्रीपाद भावे और 'हिन्द स्वराज मंडल' संस्था के वासुदेव वोरा का बहुत बड़ा प्रदान है।
जिस जिस अख़बार में मैंने पत्रकारिता की उसके तंत्री-संपादक काम करते करते ही दोस्त भी बन गएँ और कई दोस्त भी ऐसे रहे जिन्होंने मेरी लिखाई में संपादक की भूमिका अदा की, ऐसे पत्रकारमित्रों ने मुझे अपने रूप में लिखने-खिलने की भूमिका नहीं अदा की होती तो शायद पत्रकारिता छोड़ चूका होता। इस लिए उन सबका धन्यवाद करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज जिस पत्रिका से जुड़ने में ही अपने आप को सम्मानित मानता हूँ, ऐसा नवजीवन प्रकाश मंदिर का, खास कर के नई पीढ़ी को गांधीविचार से जोड़ने के लिए शुरू किया गया संपर्कपत्र और गांधीविचार का प्रसारपत्र 'नवजीवननो अक्षरदेह के तंत्री विवेक देसाई और परामर्शक कपिल रावल ने मुझ पर हमेशां विश्वास रखा है।  उसी के कारण शायद ही कोई संपादक को प्राप्त हो ऐसी स्वतंत्रता से सामग्री का चयन कर पा रहा हूँ, उसके लिए उनका भी शुक्रिया अदा करना चाहूंगा। 
और आखिर में, मेरी धर्मपत्नी जिगीषा और प्यारी बिटिया ऋजुल, जिन्होंने बहुत बार अपने हिस्से का समय मुझे लिखने-पढ़ने में व्यतीत करने दिया। उनके कारण ही आज इस समारोह के अमूल्य अवसर पर उनको साथ लेकर आप के सामने उपस्थित हूँ।
एक बार फिर, 'गाँधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा' और 'विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान' और उससे जुड़े सभी व्यक्ति का धन्यवाद, जो पुरे देश के अलग-अलग हिस्से और क्षेत्र में अपनी अच्छी नजर बनाये रखे है। काकासाहेब की तरह हम में से शायद ही किसी ने अपने काम के बदले पुरस्कार की कामना की होगी! इसी लिए, यहां उपयुक्त शब्द रखा गया है वह अवार्ड या पारितोषिक नहीं बल्कि, ‘प्रोत्साहन एवं उपलब्धियों के लिए सम्मान समारोह है।
ऐसे विचारहेतु के सुन्दर समारोह में सम्मानित करने के लिए आप सब का बहुत ही धन्यवाद।

स्थल : सन्निधि, गाँधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा,
राजघाट के पास, जवाहरलाल नेहरू मार्ग, नई दिल्ली
दि : ३१-१२-२०१६

સન્માન સ્વીકારતા કેતન રૂપેરા
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 કેતન રૂપેરા છપાયેલાં પાનાં પાછળની પ્રતિભા
- સંજય શ્રીપાદ ભાવે
(કેતનનું વક્તવ્ય વાંચ્યા પછી તેનો વિશેષ પરિચય આપતો પ્રો. સંજય ભાવેનો લેખ વાંચવા જેવો છે. અહીં તેના અંશ મૂક્યા છે. આખા લેખની લીન્‍ક સૌથી નીચે મૂકેલી છે.) 

ખુદને બાજુ પર રાખી દેવાની માંગ કરતી સંપાદકીય કામગીરી ખૂબ નિષ્ઠા અને નિસબતથી બજાવનાર આ સાલસ યુવાન પાસે મૌલિક પ્રદાનની અપેક્ષા રહે છે.
ઉત્તમના આગ્રહી કેતને સામયિક અને ગ્રંથપ્રકાશનનાં ક્ષેત્રોમાં સામગ્રી-સંપાદન (કન્ટેન્ટ એડિટિંગ)પ્રત-સંપાદન (કૉપી એડિટિંગ)પુસ્તકનિર્માણ(બુક પ્રોડક્શન)માં અભ્યાસીઓએ જેની નોંધ લેવી જોઈએ અને લેખકોએ જેનો લાભ લેવો જોઈ એવી કામગીરી કરી છે. તેમાં  ભાષાસાહિત્યપત્રકારત્વલેખનપદ્ધતિસજાવટકમ્પ્યુટર-કસબમુદ્રણતંત્ર જેવી અનેક બાબતોમાં કેતનનાં રસ-રુચિ-અભ્યાસનો અંદાજ મળતો રહે છે. પુસ્તકોના સંપાદક તરીકે ત્રણ દળદાર સંગ્રાહ્ય સ્મૃતિગ્રંથો તેની પાસેથી મળે છે – ગાંધી સાહિત્યના સારથિ : જિતેન્દ્ર દેસાઈ’ (૨૦૧૨), ‘નીડર પત્રકારસંપૂર્ણ પરિવારજન : તુષાર ભટ્ટ’ (૨૦૧૪) અને અગ્નિપુષ્પ : ચુનીભાઈ વૈદ્ય સ્મૃિતગ્રંથ’ (૨૦૧૫). આ ગ્રંથો તેના નાયકોના જીવનકાર્યનો લગભગ સર્વસંગ્રહ બને છે.....  
કેતન પુસ્તકના કે સામયિકના સંપાદન-નિર્માણના કામ કરતી વખતે ભારે ઉલ્લાસમાં હોય છે તેવી જ રીતે એના વિશે બોલતી વખતે પણ પૂરબહારમાં હોય છે! 
પ્રત- સંપાદકનું એટલે કે કૉપી એડિટરનું કામ અને તેનું મહત્ત્વ આપણે ત્યાં પ્રકાશનમાં ઓછું સમજાયું છે. કેતન ઉપરાંત તે કોઈ કરતું નથી એવું નથીપણ કેતનના કામને કારણે તેની પર ધ્યાન ખેંચાયું. 
કેટલાયનો કેતન માનીતો છે. બધાને એના કામથી સંતોષ જ નહીં પણ ખુશી હોય છે. કેતન પોતેય હંમેશાં ખુશ દેખાય છે. તેનામાં માયૂસી ભાગ્યે જ દેખાઈ છે. મોટે ભાગે એ તાજગી અને તરવરાટથી છલકાતો હોય છે.

(કેતનનો પરિચય આપતો આ આખો લેખ 'ઓપિનીયન' પર અહીં વાંચી શકાશે.) 

3 comments:

  1. કેતનભાઈનાં વ્યક્તવ્યને દસ્તાવેજ કરવા બદલ અભિનંદન

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  2. કેતન રુપેરાને અઢળક અભીનન્દન..

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  3. કેતનભાઈને અભિનંદન.

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